मजहब के नाम पर लोग लड़ते
रहे इंसानियत रोज दफ़न होती रही
सजदे करते रहे अपने अपने
ईश्वर के
सूनी कोख मां की उजड़ती रही
मूर्तियों पर बहती रही गंगा
दूध की
दूध के बिना बचपन बिलखती
रही
लगाकर दाग इंसान के
माथे पर
हैवानियत इंसान को डसती रही
किस किस को कैसे जगाएं
‘राजीव’
इंसानियत गहरी नींद में सोती रही
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बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-05-2015) को "सिर्फ माँ ही...." {चर्चा अंक - 1971} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सादर आभार.
Deleteइंसानियत सोती रही,मार्मिक चित्रण
ReplyDeleteऑर्थोडॉक्स समाज को सुधरने में समय लगेगा १
ReplyDeleteA गज़ल्नुमा कविता (न पति देव न पत्नी देवी )
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteसमाज की हकीकत हो सुन्दर शब्द दिए हैं आपने आदरणीय राजीव जी ! हर जगह कुत्सित मन के लोग होते हैं जिनकी वजह से पूरा समाज कलंकित होता है !
ReplyDeleteकटु सत्य...अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी !
ReplyDeleteहमारे समाज काे सुधरना ही होगा। असंवेदनशीन विश्व मानव के विनाश का कारण बन सकता है।
ReplyDeleteकितनी विडम्बना है न?
ReplyDeleteपत्थर पिघल जाते हैं हैं पर इंसान नहीं।
किस किस को कैसे जगाएं ‘राजीव’
ReplyDeleteइंसानियत गहरी नींद में सोती रही ....
जब इंसान हो सो गया तो इंसानियत को तो सोना ही है ...
भावपूर्ण गहरी रचना ...
भावपूर्ण एव हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति।मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteराजीव जी, सोती हुई इंसानियत को बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है आपने!...
ReplyDeleteकिस किस को कैसे जगाएं ‘राजीव’
ReplyDeleteइंसानियत गहरी नींद में सोती रही....................बेहतरीन रचना !